📰 हाइलाइट्स | Top Highlights
-
🔥 हाई कोर्ट ने पॉक्सो केस में निचली अदालत के फैसले को बताया “आश्चर्यजनक”
-
🧑⚖️ मुख्य न्यायाधीश जी. नरेंद्र और न्यायमूर्ति आलोक माहरा की खंडपीठ की सख्त टिप्पणी
-
🚫 न कोई प्रत्यक्षदर्शी, न कोई सबूत, फिर भी दोषसिद्धि — हाई कोर्ट ने कहा “यह न्याय नहीं!”
-
💉 मेडिकल रिपोर्ट में रेप की पुष्टि नहीं, शरीर पर कोई चोट या निशान नहीं मिले
-
🕊️ पीड़िता ने खुद कहा — आरोपी ने शारीरिक संबंध नहीं बनाया
⚖️ उत्तराखंड हाई कोर्ट की सख्त फटकार: “यह सबूत न होने का मामला है”
उत्तराखंड हाई कोर्ट ने पॉक्सो अधिनियम से जुड़े एक मामले में अधीनस्थ न्यायालय के फैसले पर कड़ी नाराजगी जताई है।
कोर्ट ने कहा कि आरोपी को बिना किसी ठोस सबूत, गवाही या मेडिकल पुष्टि के दोषी ठहराया गया, जो न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध है।
मुख्य न्यायाधीश जी. नरेंद्र और न्यायमूर्ति आलोक माहरा की खंडपीठ ने कहा —
“यह अपर्याप्त सबूत का नहीं, बल्कि सबूत न होने का मामला है।”
पीठ ने आरोपी रामपाल को जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया और अधीनस्थ अदालत के फैसले को “आश्चर्यजनक” बताया।
📍 क्या है पूरा मामला?
उत्तरकाशी जिले के जखोले गांव निवासी रामपाल पर आरोप था कि उसने जनवरी 2022 में एक नाबालिग लड़की को बहला-फुसलाकर भगाया और उसका यौन उत्पीड़न किया।
उत्तरकाशी के विशेष सत्र न्यायाधीश ने जनवरी 2024 में रामपाल को
➡️ आईपीसी की धारा 376
➡️ पॉक्सो अधिनियम की धाराओं के तहत
20 साल की सजा और जुर्माना सुनाया था।
🧾 सुनवाई के दौरान हाई कोर्ट ने क्या कहा
17 अक्टूबर को सुनवाई के दौरान हाई कोर्ट ने पाया कि:
-
🚫 पुलिस और अभियोजन पक्ष यह तक साबित नहीं कर सके कि अपराध हुआ कहां था।
-
🧍♀️ कोई प्रत्यक्षदर्शी गवाही नहीं थी।
-
🏚️ किसी घर, होटल या स्थान का कोई सबूत नहीं दिया गया जहाँ कथित अपराध हुआ।
कोर्ट ने कहा —
“जांच एजेंसी और अभियोजन पक्ष दोनों इस बात को साबित करने में पूरी तरह विफल रहे कि कथित अपराध का स्थल क्या था।”
💉 मेडिकल रिपोर्ट ने खोले सच्चाई के दरवाज़े
हाई कोर्ट के अनुसार, मेडिकल रिपोर्ट में:
-
❌ रेप की पुष्टि नहीं हुई
-
❌ शरीर पर कोई चोट, सूजन या निशान नहीं मिले
-
👩⚕️ चिकित्सक ने जबर्दस्ती यौन संबंध के कोई संकेत रिपोर्ट में दर्ज नहीं किए
साथ ही, पीड़िता ने अपनी गवाही में साफ कहा —
“आरोपी के साथ मेरा कोई शारीरिक संबंध नहीं हुआ।”
🧑⚖️ न्यायिक प्रणाली के लिए चेतावनी!
कोर्ट ने अधीनस्थ न्यायालय की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाते हुए कहा कि उसने
सीआरपीसी की धारा 164 के तहत दर्ज बयान पर भरोसा किया,
जबकि वह रिकॉर्ड में कभी प्रदर्शित ही नहीं हुआ।
पीठ ने टिप्पणी की कि
“न्याय का आधार हमेशा तथ्यों और प्रमाणों पर होना चाहिए, न कि अनुमान या भावनाओं पर।”
📢 संदेश साफ: न्याय ‘संदेह से परे’ होना चाहिए
यह फैसला न्यायपालिका के लिए एक अहम उदाहरण है कि
किसी भी अपराध में दोषसिद्धि केवल ठोस सबूतों के आधार पर ही दी जा सकती है।
हाई कोर्ट ने यह भी कहा कि अभियोजन पक्ष और पुलिस दोनों को
जांच प्रक्रिया में सटीकता और पारदर्शिता सुनिश्चित करनी चाहिए।
💬 निष्कर्ष | The Bottom Line
उत्तराखंड हाई कोर्ट का यह फैसला निचली अदालतों के लिए
एक मजबूत संदेश है कि न्याय केवल “भावनात्मक दबाव” पर नहीं,
बल्कि कानूनी प्रमाणों और साक्ष्यों पर आधारित होना चाहिए।
यह केस बताता है कि —
⚖️ “कानून की नज़र में केवल सबूत ही सच बोलते हैं।”


