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रामनगर: देवभूमि उत्तराखंड में कई त्योहार मनाए जाते हैं, उन्हीं में से एक फूलदेई भी है. लोग इस पर्व का बेसब्री से इंतजार करते हैं. फूलदेई पर्व बच्चों के द्वारा मनाया जाता है. हिंदू महीने चैत्र के पहले दिन फूलदेई लोकपर्व मनाया जाता है. पर्व को लेकर बच्चों में आज खासा उत्साह देखने को मिला. बच्चे सुबह से ही टोकरियों में फूल भरकर लोगों की देहलियों में डाल रहे हैं. लोग बच्चों को गुड़, मिठाई, अनाज और रुपए दे रहे हैं. साथी ही आशीर्वाद की बारिश कर रहे हैं.

चैत्र माह के पहले दिन मनाया जाता है पर्व: उत्तराखंड की खूबसूरत वादियों में इन दिनों प्रकृति प्रेम और संस्कृति की खुशबू से भरा लोकपर्व “फूलदेई” धूमधाम से मनाया जा रहा है. उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में बसंत ऋतु के आगमन का प्रतीक लोकपर्व फूलदेई हर साल चैत्र माह के पहले दिन पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. कुमाऊं में इसे फूलदेई और गढ़वाल में फूल संक्रांति के नाम से जाना जाता है. यह पर्व खासकर बच्चों के लिए बेहद उत्साहजनक होता है. जहां वे घर-घर जाकर फूल चढ़ाते हैं और मंगल कामना करते हैं.

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‘फूलदेई छम्मा देई, दैणी द्वार भर भकार लोक भाषा में इसका अर्थ ये होता है.आपकी देहलियों हमेशा फूलों से सजी रहे और घर में हमेशा खुशी बनी रहे. भगवान सबकी रक्षा करें, घर में अनाज का भंडार भरा रहे. बच्चे फूल डालते हुए ये प्रार्थना करते हैं. जिसके बदले में उन्हें गुड़, मिठाई, अनाज और रुपए मिलते हैं.

बच्चे बेसब्री से करते हैं पर्व का इंतजार: वहीं घरों में जा रहे नन्हे बच्चे कहते हैं कि हमें बहुत अच्छा लगता है फूलदेई मनाना. सुबह-सुबह फूल इकट्ठा करके सबके घरों में डालते हैं और बदले में हमें मिठाइयां, गुड़ और पैसे मिलते हैं. बच्चे सुबह होते ही आसपास के क्षेत्रों में और बागों में जाकर रंग-बिरंगे फूल बीनते हैं. फिर पूरे गांव में घूमकर हर घर की दहलीज पर ‘फूलदेई छम्मा देई दैणी द्वार भर भकार’ बोलकर फूल डाल रहे हैं. इसके बदले में उन्हें गुड़, चावल और उपहार दिए जा रहे हैं. इस पर्व का मुख्य उद्देश्य प्रकृति प्रेम और समाज में आपसी सौहार्द को बढ़ावा देना है.

फूलदेई हमारी परंपरा का अहम हिस्सा है. यह बच्चों को प्रकृति से प्रेम करना सिखाता है और उन्हें समाज के प्रति जिम्मेदार बनाता है. त्यौहार हमारी सांस्कृतिक विरासत है, जिसे संजोकर रखना बहुत जरूरी है. उत्तराखंड के इस विशेष पर्व के पीछे मान्यता यह भी है कि जो बच्चे इस दिन घर-घर जाकर फूल चढ़ाते हैं, उन पर देवताओं की कृपा बनी रहती है. यह पर्व न केवल सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने का एक माध्यम है, बल्कि प्रकृति के संरक्षण का संदेश भी देता है. गणेश रावत, जानकार लोक परंपरा

फूलदेई और होली का अद्भुत संगम: इस बार फूलदेई का संयोग होली के साथ हुआ है. जहां होली के रंगों में लोग रंगे हैं, वहीं फूलदेई की सुगंध इस पर्वतीय राज्य को नई ऊर्जा से भर रही है. आज के आधुनिक दौर में, जब नई पीढ़ी पश्चिमी संस्कृति की ओर बढ़ रही है, ऐसे में लोक पर्वों को संजोकर रखना बेहद जरूरी हो जाता है. फूलदेई जैसे त्योहार हमें अपनी जड़ों से जोड़ते हैं और आने वाली पीढ़ी को प्रकृति तथा संस्कृति का महत्व समझाने का काम करते हैं. जानकारों का कहना है कि हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे अपनी संस्कृति से जुड़े रहें, फूलदेई सिर्फ एक त्यौहार नहीं, बल्कि प्रकृति के प्रति आभार प्रकट करने की परंपरा है.

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पर्व की पौराणिक मान्यता: पर्व मनाने के पीछे पौराणिक मान्यता ये है कि एक बार भगवान शिव शीतकाल में अपनी तपस्या में लीन थे. भगवान की तपस्या को कई वर्ष हो गए, लेकिन भगवान शिव तपस्या से नहीं जागे. जिसके बाद माता पार्वती ने भगवान शिव को तपस्या से उठाने के लिए युक्ति निकाली. माता पार्वती ने शिव भक्तों को पीले वस्त्र पहनाकर उन्हें अबोध बच्चों का स्वरूप दे दिया. जिसके बाद सभी देव पुष्प चुनकर लाए, जिसकी खुशबू पूरे कैलाश पर्वत महक उठी. सबसे पहले भगवान शिव के तंद्रालीन मुद्रा को अर्पित किए गए, जिसे फूलदेई कहा गया. वहीं बच्चों के वेश में शिवगणों को देखकर भगवान शिव का क्रोध शांत हो गया.