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पाकिस्तान (Pakistan) अपनी चालबाजियों से कभी बाज नहीं आता है. भारत के कुछ नेता पाकिस्तान के संवाद की हमेशा वकालत करते रहते हैं. आइए जानते हैं कि इसकी वजह क्या है.

पाकिस्तान (Pakistan) का नाम लेने पर एक हिंदुस्तानी नागरिक के तौर पर आपके जेहन में सबसे पहले क्या छवि उभरती है. जाहिर है आतंकवाद और पाकिस्तान में चल रहे असंख्य टेररिस्ट कैंप्स की. क्योंकि पड़ोसी मुल्क होने के नाते हम आजादी के बाद से ही पाकिस्तान के इस प्रॉक्सी वॉर को झेलते आए हैं और ये पाकिस्तान की घोषित नीति का हिस्सा है. आजादी के बाद से पाकिस्तान और भारत के बीच तीन बड़े युद्ध हो चुके हैं. जबकि वर्ष 1999 में कारगिल की भीषण जंग की यादें भी भारतीयों के मन में ताजा हैं. इसीलिए जब-जब पाकिस्तान के साथ शांति, अमन और कारोबार की बातें होती हैं तो एक आम भारतीय के दिमाग में 26/11 के मुंबई आतंकी हमले और पुलवामा आतंकी हमले की तस्वीरें तैरने लगती हैं.

पाकिस्तान पर कैसे यकीन करे भारत?

पाकिस्तान की इसी नीति की वजह से भारत कभी भी पाकिस्तान पर यकीन करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता. लेकिन आज भारत में ही महबूबा मुफ्ती और फारुख अब्दुल्ला जैसे कई नेता हैं, जिनके दिमाग में उठते-बैठते, खाते-पीते, सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान ही चलता रहता है. वो पाकिस्तान से बातचीत की पैरवी इस तरह करते हैं, जैसे वो पाकिस्तान की ही PR टीम का हिस्सा हों.

शांतिदूत नजर आते हैं शहबाज शरीफ!

आप सोचिए कि महबूबा भारत की नागरिक हैं, उन्हें आम भारतीयों के टैक्स से जमा होने वाले पैसों से कई तरह की सुविधाएं मिलती हैं. लेकिन इसके बावजूद उनको भारत से ज्यादा पाकिस्तान की फिक्र सताती है. और इसीलिए उन्हें पाकिस्तान के पीएम शहबाज शरीफ शांतिदूत नजर आते हैं और वो उसी पाकिस्तान के साथ बातचीत की वकालत करते नहीं थकतीं, जिसका असली एजेंडा ही भारत को बर्बाद करना है और Bleed India with a Thousand Cuts उसकी घोषित नीति का हिस्सा है.

पाकिस्तान से संवाद क्यों अलापा जाता है राग?

सिर्फ महबूबा मुफ्ती ही नहीं, जम्मू-कश्मीर के एक और पूर्व सीएम फारुख अब्दुल्ला भी गाहे-बगाहे पाकिस्तान से बातचीत का राग अलापते रहे हैं और जब महबूबा मुफ्ती ने शहबाज शरीफ की तारीफ में कसीदे पढ़े तो भला वो पीछे क्यों रहते? दरअसल पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शरबाज शरीफ ने कुछ दिन पहले अल अरेबिया चैनल को एक इंटरव्यू दिया था. जिसमें उन्होंने माना था कि पाकिस्तान ने भारत के साथ तीन जंग लड़ीं और इन जंगों से उसे सिवाय गरीबी और बर्बादी के कुछ नहीं मिला और उन्होंने भारत के सामने बिना शर्त बातचीत की पेशकश भी की.

यहां नोट करने की बात ये है कि आजादी के बाद से भारत और पाकिस्तान के बीच जितने भी युद्ध हुए वो हमने नहीं शुरु किए थे. वो हम पर थोपे गए थे और हमने सिर्फ वही किया जो एक जिम्मेदार देश अपनी अखंडता और संप्रभुता की रक्षा के लिए करता. और इसीलिए भारत ऐसे बयानों पर आसानी से यकीन नहीं कर पाता क्योंकि शहबाज शरीफ ये तो कह रहे हैं कि अब वो युद्ध नहीं लड़ना चाहते. लेकिन वो भारत के साथ छद्म युद्ध यानी आतंकवाद पर कोई भरोसा नहीं देते.

वो ये नहीं कहते कि कल से पाकिस्तान अपने यहां चल रहे सभी आतंकी अड्डों और कैंपों को बंद कर देगा और सभी आतंकियों को जेल में डाल देगा. तो फिर ऐसी बातचीत का क्या फायदा क्योंकि एक जिम्मेदार मुल्क होने के नाते भारत का हमेशा से यही कहना रहा है कि वो उसे पाकिस्तान से बातचीत करने में कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन आतंकवाद और बातचीत एक साथ नहीं चल सकती.

भारत की ये नीति इसलिए है क्योंकि जब-जब भारत ने पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारने की पहल की है, बदले में उसे धोखा ही मिला है. फरवरी 1999 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने पाकिस्तान का दौरा किया था और वो एक प्रतिनिधिमंडल के साथ बस में बैठकर लाहौर पहुंचे थे. ये वो दौर था जब परमाणु परीक्षणों की वजह से दोनों देशों के रिश्ते बेहद खराब दौर से गुजर रहे थे, ऐसे में वाजपेई के इस दौरे की काफी तारीफ की गई थी.

लेकिन बदले में पाकिस्तान ने क्या किया? वाजपेई की लाहौर यात्रा के सिर्फ ढाई महीने के भीतर पाकिस्तान ने कारगिल में हमला कर दिया. ये दोस्ती के नाम पर पीठ में छुरा घोंपने का क्लासिक उदाहरण था और पाकिस्तान ये उदाहरण बार-बार दोहराता रहा. रिश्ते सुधारने की कवायद के तौर पर जुलाई 2001 को पाकिस्तान के तत्कालीन सैन्य शासक जनरल परवेज मुशर्रफ भारत आए थे और 14 से 16 जुलाई तक आगरा शिखर सम्मेलन में हिस्सा लिया था. हालांकि ये बातचीत किसी नतीजे तक नहीं पहुंची थी. लेकिन दोनों देशों ने शांति बहाली पर सहमति जताई थी.

लेकिन हुआ क्या? ठीक पांच महीने बाद 13 दिसंबर 2001 को भारत की संसद पर आतंकी हमला हो गया और बताने की जरूरत नहीं है कि लश्कर और जैश के इन आतंकियों का संबंध कहां से था. इसी तरह वर्ष 2008 में UPA की सरकार थी और तब तत्कालीन पीएम मनमोहन सिंह के दौर में रिश्ते सुधारने की एक और पहल हुई. 24 नवंबर, 2008 को होम सेकेट्री लेवल टॉक के लिए भारतीय गृह सचिव की अगुवाई में भारतीय प्रतिनिधिमंडल पाकिस्तान पहुंचा.

लेकिन होम सेकेट्री इंडिया लौटते, इससे पहले ही यानी 26 नंबवर को मुंबई में आतंकी हमले हो गए. इन हमलों में 164 लोग मारे गए थे और 300 से ज्यादा लोग घायल हुए थे. इन हमलों में पाकिस्तान की भूमिका किसी से छिपी नहीं है और ये सब तब हुआ था जब बातचीत के नाम पर पाकिस्तान पहुंचे भारत के होम सेकेट्री वहीं मौजूद थे.

हो सकता है महबूबा मुफ्ती और फारुख अब्दुल्ला जैसे नेताओं के लिए इतने उदाहरण काफी न हों, इसलिए हम आपको एक और बिल्कुल ताजा उदाहरण देते हैं. 5 दिसंबर 2015 को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रूस और अफगानिस्तान के दौरे से वापस लौट रहे थे. लेकिन पाकिस्तान के तत्कालीन पीएम नवाज शरीफ से मिलने और उन्हें जन्मदिन की शुभकामनाएं देने के लिए वो अचानक लाहौर में रुक गए थे. पीएम मोदी के इस जेस्चर की हर किसी ने तारीफ भी की थी.

पीएम मोदी की कोशिश थी कि भारत और पाकिस्तान के रिश्ते किसी तरह पटरी पर लौट आएं. लेकिन भारत को बदले में क्या मिला. इस दौरे के एक महीने के अंदर पठानकोट एयरबेस पर आतंकी हमला हो गया और ये हमला भी पाकिस्तान के इशारों पर हुआ था. कहते हैं न कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीता है और इसीलिए अगर आज भारत अपने पुराने अनुभवों से सीख रहा है तो फिर इसमें महबूबा मुफ्ती या फिर फारुख अब्दुल्ला को इतनी दिक्कत क्यों है? शायद उनका पाकिस्तान प्रेम उन्हें इस बात की इजाजत नहीं देता और इसीलिए दिल का दर्द अक्सर जुबां पर आ ही जाता है.

ये दोनों ही नेता जानते हैं कि आज अगर कश्मीर की ये हालत है तो उसका जिम्मेदार भारत या भारत की सेना नहीं. पाकिस्तान और उसकी आतंक परस्त नीति है. और ये सच जानने के बावजूद ये नेता पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के खिलाफ कुछ नहीं कह पाते.

आज भले ही पाकिस्तान दिवालिया होने की कगार पर हो, दुनियाभर से भीख मांग रहा हो लेकिन इसके बावजूद भी भारत में ड्रोन के जरिए हथियार पहुंचाने, आतंकी साजिश रचने और ड्रग्स सप्लाई करने के लिए उसकी फंडिंग में कोई कमी नहीं आई है. और इसीलिए बेहतर होगा कि शहबाज शरीफ UAE में बैठकर प्रायश्चित करने की जगह पाकिस्तान में आतंकवाद को पालना बंद करें और साबित करें कि वो सच में अमन चाहते हैं.

महबूबा मुफ्ती और फारुख अब्दुल्ला जैसे नेताओं को भारत सरकार को कोसने की जगह पाकिस्तान पर दबाव बनाना चाहिए ताकि कश्मीर में पाकिस्तान की सेना के इशारे पर होने वाला खून-खराबा और दहशतगर्दी बंद की जा सके. लेकिन इसकी जगह उनकी सुई पाकिस्तान से बातचीत और आर्टिकल 370 की बहाली पर आ कर टिक जाती है.

जबकि सच्चाई ये है कि 5 अगस्त 2019 के बाद से कश्मीर के हालात में बदलाव देखे गए हैं और आज कश्मीर की जनता खुद अलगाववादियों को नकार कर मुख्यधारा से जुड़ रही है. लेकिन कश्मीर की ये नई तस्वीरें न तो पाकिस्तान को हजम हो रही हैं और न ही भारत में उनके पैरोकार नेताओं को.