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अग्रसर भारत: विशेष रिपोर्ट

भारतीय संस्कृति बनाम सांता क्लोज: स्कूलों में अपनी परंपराओं को प्राथमिकता देने की उठ रही मांग

दिसंबर का महीना आते ही देश के अधिकांश निजी स्कूलों में ‘क्रिसमस’ और ‘सांता क्लोज’ का माहौल दिखने लगता है। लेकिन हाल के वर्षों में अभिभावकों और सांस्कृतिक संगठनों के बीच एक बड़ा सवाल खड़ा हुआ है कि आखिर केवल कॉन्वेंट या आधुनिक स्कूलों में ही सांता क्लोज का प्रवेश क्यों होता है? क्या भारतीय शिक्षण संस्थानों में अपनी मूल परंपराओं और महापुरुषों को वह स्थान मिल पा रहा है, जिसके वे हकदार हैं?
​सांता क्लोज बनाम भारतीय संस्कार
​सोशल मीडिया और विभिन्न मंचों पर यह बहस छिड़ी है कि भारतीय बच्चों को सांता क्लोज जैसे काल्पनिक पात्रों का हिस्सा बनने के लिए विवश क्यों किया जाता है। विशेषज्ञों का मानना है कि किसी भी बच्चे पर किसी विशेष धर्म या संस्कृति के प्रतीकों को अपनाने के लिए दबाव बनाना अनुचित है। सांता क्लोज की जगह यदि बच्चों को वीर बाल दिवस (साहिबजादा जोरावर सिंह और फतेह सिंह), स्वामी विवेकानंद या छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे नायकों के त्याग और वीरता के बारे में बताया जाए, तो उनमें अपनी जड़ों के प्रति गौरव का भाव जगेगा।
​मदरसों और अन्य धार्मिक संस्थानों का परिप्रेक्ष्य
​अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि जहां आधुनिक स्कूलों में ईसाई परंपराओं को उत्सव के रूप में मनाया जाता है, वहीं मदरसों जैसे धार्मिक संस्थानों में केवल अपनी ही धार्मिक शिक्षा दी जाती है। यह दोहरा मापदंड भारतीय समाज में एक वैचारिक असंतुलन पैदा करता है। शिक्षाविदों का कहना है कि स्कूलों को धर्मनिरपेक्षता का पालन करते हुए सभी धर्मों का सम्मान करना चाहिए, लेकिन प्राथमिकता सदैव ‘भारतीयता’ और ‘सनातन संस्कृति’ को दी जानी चाहिए।
​स्कूलों की भूमिका और जिम्मेदारी
​आज आवश्यकता इस बात की है कि स्कूल प्रशासन आगे बढ़कर बच्चों को भारतीय त्योहारों, ऋतुओं और महान ऋषियों की शिक्षाओं से परिचित कराए।
​दबाव मुक्त शिक्षा: बच्चों को सांता क्लोज की पोशाक पहनने या किसी विशेष परंपरा को थोपने से बचाना चाहिए।
​सांस्कृतिक जागरूकता: स्कूलों को चाहिए कि वे रामायण, महाभारत और भारतीय इतिहास के उन पन्नों को बच्चों के सामने रखें जो उन्हें नैतिक मूल्य सिखाते हैं।
​स्वदेशी नायक: ‘सीक्रेट सांता’ के बजाय ‘सीक्रेट दानवीर’ (जैसे कर्ण या राजा बलि) की अवधारणा पेश की जा सकती है, जिससे भारतीय मूल्य सुरक्षित रहें।
​निष्कर्ष
​भारत एक ऐसा देश है जिसकी संस्कृति दुनिया की सबसे प्राचीन और समृद्ध संस्कृतियों में से एक है। स्कूलों का कर्तव्य केवल अक्षर ज्ञान देना नहीं, बल्कि बच्चों के चरित्र का निर्माण करना है। यदि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को अपनी परंपराओं के प्रति जागरूक नहीं करेंगे, तो वे अपनी पहचान खो देंगे। समय की मांग है कि शिक्षा व्यवस्था में ‘भारतीयता’ को सर्वोपरि रखा जाए।