ऐनडीए का आंकड़ा भले ही सरकार बनाने लायक बहुमत से आगे निकल गया हो, भाजपा भले ही सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी हो, लेकिन आंकडे़ बता रहे हैं कि जातीय गोलबंदी और मुस्लिम लामबंदी हिंदुत्व पर भारी पड़ी।
मोदी की तीसरी बार सरकार बनने से संविधान और आरक्षण पर खतरे का विपक्ष का शोर भाजपा के लाभार्थी मतदाताओं के समूहों तथा सबका साथ-सबका विकास-सबका विश्वास और सबका प्रयास के नारे पर भारी पड़ा। अयोध्या में राममंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा के बावजूद वहां भाजपा की हार इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।
हिंदी पट्टी में उत्तर प्रदेश सहित, राजस्थान, हरियाणा के अलावा महाराष्ट्र व पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में आरक्षण बचाने के लिए पिछड़ों और दलितों की जातीय गोलबंदी के साथ मुस्लिमों ने लामबंद होकर भाजपा को अपने दम पर बहुमत के आंकड़े से ही दूर नहीं किया, इंडिया गठबंधन के पैर जमाने की कोशिश को भी आसान कर दिया। नतीजों का मुख्य संकेत यही है। पर, गणित बिगड़ने का कारण सिर्फ यही नहीं है। भाजपा के अति आत्मविश्वास और वर्तमान सांसदों को लेकर स्थानीय स्तर पर अलोकप्रियता, विपक्ष की तरफ से महंगाई, बेरोजगारी और किसानों के साथ नाइंसाफी जैसे आरोपों ने भी भाजपा के समीकरणों को कमजोर किया।
आरोपों की काट में असफल
सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बावजूद, भाजपा के लिए 370 और एनडीए के लिए 400 पार के भरोसे से लबरेज लक्ष्य के चौंकाने वाले फलितार्थ निश्चय ही भाजपा को आत्ममंथन की सलाह दे रहे हैं। मध्यप्रदेश, बिहार और दिल्ली में भाजपा के नतीजों के भी कुछ संकेत हैं। भाजपा की तीसरी बार सरकार बनने पर संविधान बदल देने, चुनाव न कराने और पिछड़ों-दलितों का आरक्षण समाप्त कर देने के विपक्षी गठबंधन के आरोपों की काट निकालने में भाजपा असफल रही।
विपक्ष ने जीता मुस्लिमों का भरोसा
भाजपा के बड़े नेताओं के तमाम तर्कों के बावजूद स्थानीय स्तर पर, खासतौर पर उत्तर प्रदेश सहित हिंदी पट्टी के कुछ राज्यों में पार्टी कार्यकर्ता आरक्षण और संविधान खत्म करने के आरोपों की प्रभावी काट नहीं निकाल पाए। मुस्लिमों ने भाजपा के खिलाफ पिछड़ों व दलितों की गोलबंदी देखी, तो उन्हें भरोसा हो गया कि वे इनके साथ लामबंद होकर भाजपा का विजय अभियान रोक सकते हैं। उन्होंने वही कोशिश की। इंडिया गठबंधन अपने सरकार बनाने के दावे पर मुस्लिम मतदाताओं का भरोसा जीतने में कामयाब रहा। मुस्लिमों ने सहूलियत और विशिष्टता तथा सत्ता में हिस्सेदारी की आकांक्षा से इंडिया गठबंधन के पक्ष में मतदान किया।
बूथ-प्रबंधन हुआ ध्वस्त
भाजपा नेतृत्व की न जाने क्या मजबूरी थी कि जनता से संपर्क-संवाद न रखने वाले चेहरों को फिर मैदान में उतार दिया। वहीं, रिकॉर्ड जीत वालों के टिकट काट दिए गए। इससे नाराजगी पैदा हुई। आमतौर पर मुखर रहने वाला कार्यकर्ता चुप्पी साध गया। पहले चरण में, कम मतदान का कारण यही था। बूथ-प्रबंधन, जो भाजपा की पहचान थी, वह ध्वस्त था।
मोदी पर भरोसा, पर खुद बेअंदाज
प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे की बदौलत जीत के अति भरोसे से भरे उम्मीदवार अपनी ही रौ में चलते रहे। जनता की नाराजगी के बावजूद कुछ बेअंदाज सांसद खुद पसीना बहाने के बजाय पीएम मोदी के भरोसे बैठ गए। संगठन के अति आत्मविश्वास से जातीय गोलबंदी और मुस्लिम मतदाताओं की लामबंदी का असर ज्यादा व्यापक होता चला गया।
सांसदों की बेरुखी ने बढ़ाई दूरी
मोदी ने 2014 में सत्ता संभालने के बाद योजनाओं का लाभ सीधे लोगों तक पहुंचाकर बड़ा लाभार्थी मतदाता वर्ग तैयार किया, जो हर चुनाव में संकटमोचक बनता रहा है। इनसे निरंतर संवाद का काम पहले सांसदों-विधायकों को सौंपा गया। लेकिन, जब उनकी अरुचि दिखी, तो विकसित भारत संकल्प यात्रा के जरिये सरकारी तंत्र को सक्रिय करना पड़ा। विपक्षी गठबंधन ने इसका तोड़ निकाल लिया…राहुल गांधी गरीब महिला के खाते में 8,500 रुपये खटाखट-खटाखट पहुंचाने का वादा करते दिखे, तो कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे पांच की जगह दस किलो अनाज का भरोसा देते नजर आए। यूपी, हरियाणा, राजस्थान में भाजपा की सीटों में कमी की बड़ी वजह स्थानीय स्तर पर उम्मीदवारों व नेताओं से लोगों की नाराजगी दूर करने में पार्टी की नाकामी भी है।
सरोकारों पर सक्रिय चेहरों की जरूरत
नतीजे यह भी बताते हैं कि भाजपा को जातीय अस्मिता पर और फोकस करना होगा। उत्तर प्रदेश से लेकर राजस्थान तक भाजपा को झटका और मध्य प्रदेश में उसे मिली एकतरफा जीत यह समझा रही है कि पिछड़ी और दलित जातियों में ऐसे चेहरों को आगे लाने की जरूरत है, जो जनाधार रखते हैं। विकास और कल्याणकारी योजनाएं आरक्षण की तरह अब हर सरकार की अपरिहार्यता हो गई हैं।
सत्ता परिवर्तन के साथ इनमें बदलाव संभव नहीं रह गया…न ही जातीय आकांक्षाओं को पूरी तरह संतुष्ट कर सकती है। पिछड़ों और दलितों को सजावटी चेहरे नहीं, बल्कि सत्ता के शीर्ष में भागीदारी चाहिए । जो उनके सरोकारों पर सक्रिय दिखे ।
राजस्थान में भी नाराजगी
मध्य प्रदेश में मोहन यादव की ताजपोशी व शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री पद से हटाने के बावजूद भाजपा पिछड़ों को बांधे रही, लेकिन राजस्थान में वसुंधरा राजे को पूरी तरह किनारे करना एक बड़े वर्ग को नाराज कर गया। भाजपा के पास पिछड़ी जातियों के कई चेहरे होते हुए जिस तरह उत्तर प्रदेश में पिछड़े और दलित वोट के उससे छिटकने के संकेत मिल रहे हैं, वह बताता है कि पार्टी नेता अपने समाज के लोगों के सरोकारों के साथ जु़ड़ने में नाकाम रहे हैं।
राहुल की छवि बदली पर चुनौती बाकी
विपक्षी गठबंधन की अहम जीत से राहुल गांधी का ग्राफ बड़ा है। भारत जोड़ो यात्राओं ने उनकी छवि बदली है। हालांकि नरेंद्र मोदी जैसा भरोसा हासिल करना उनके लिए अब भी चुनौती है। वे विपक्षी गठबंधन को राष्ट्रीय स्वरूप दे पाते और दो सौ से ज्यादा सीटों पर गठबंधन के दल आमने-सामने चुनाव लड़ते न दिखते, तो नतीजे और बेहतर हो सकते थे। अखिलेश यादव अधिक विश्वास और बेहतर राजनीतिक समीकरण के साथ मैदान में थे। दो बार की नाकामी के बाद इस बार उत्तर प्रदेश में इससे कांग्रेस को लाभ मिला। रोचक तथ्य देखिए, जिस अखिलेश सरकार ने पदोन्नति में आरक्षण खारिज किए जाने के बाद 12 हजार से ज्यादा अनुसूचित जाति वर्ग के कर्मचारियों, अधिकारियों को पदावनत किया, उन्हें ही मायावती का पूरा वोट बैंक स्थानांतरित हो गया। इसके चलते बसपा का वोट बैंक यूपी में 19.26 फीसदी से घटकर महज 2 फीसदी रह गया।
पुराने मित्रों से दोस्ती से बढ़ी इज्जत
वहीं, ओडिशा में मित्र दल बीजद से अलग होकर चुनाव लड़ना और आंध्र प्रदेश व बिहार में पुराने मित्रों से फिर दोस्ती से भाजपा की इज्जत बनी रही। हालांकि उत्तर प्रदेश में डबल इंजन की सरकार और जातीय अस्मिता से जुड़े दलों के साथ गठबंधन के बावजूद उसे निराशा हाथ लगी है।