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दमा की दवा को छोड़ना रोगियों को भारी पड़ रहा है। ऐसे रोगी पर दमा के अटैक का खतरा ज्यादा रहता है। वहीं, वातावरणीय प्रभाव समेत अन्य कारणों के चलते दमा अटैक के मामले बढ़ रहे हैं।

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विश्व अस्थमा दिवस

दमा की दवा को छोड़ना रोगियों को भारी पड़ रहा है। ऐसे रोगी पर दमा के अटैक का खतरा ज्यादा रहता है। वहीं, वातावरणीय प्रभाव समेत अन्य कारणों के चलते दमा अटैक के मामले बढ़ रहे हैं।
वरिष्ठ टीबी एवं चेस्ट रोग विशेषज्ञ डॉ. गौरव सिंघल का कहना है कि दमा का कारण आनुवांशिक और वातावरणीय होता है। इस समय बीमारी को लेकर काफी एडवांस दवा आ गई है। लोगों की इन्हेलर को लेकर भी स्वीकार्यता बढ़ रही है। मरीजों की संख्या की बात करें तो संख्या में कोई बढ़ोतरी नहीं दिख रही है, लेकिन दमा अटैक के कारण अस्पताल में आने वाले केस बढ़ रहे हैं। ये वे रोगी हैं जो दवाओं के इस्तेमाल को लेकर कोताही बरतते हैं। अगर अस्पताल में दस रोगी दमा के अटैक के कारण पहुंचते हैं, तो उसमें करीब आठ रोगी ऐसे होते हैं जिन्होंने दवाओं को खाने में लापरवाही की होती है। दमा के अटैक का एक कारण प्रदूषण भी है।

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धुल, धुएं से बचना चाहिए
हल्द्वानी। डॉ. सिंघल कहते हैं कि जिन लोगों को दमा की शिकायत होती है, उन्हें धुल, धुएं से बचना चाहिए। आग जलाकर नहीं बैठना चाहिए। बीमारी के चलते केवल शारीरिक दिक्कत नहीं होती है, बल्कि रोग के कारण अगर व्यक्ति काम करने में असमर्थ होता है तो उसकी आर्थिकी पर भी प्रभाव पड़ता है।
मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य डॉ. अरुण जोशी कहते हैं कि सांस फूलना, सांस लेते समय सीटी बजना जैसे लक्षण होते हैं। दमा अटैक कई कारणों से होता है। अगर किसी को दिक्कत होती है तो उसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। तत्काल चिकित्सक से संपर्क करना चाहिए।

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एसटीएच में हर माह आ रहे 80 नये मरीज

हल्द्वानी। मेडिकल कॉलेज के टीबी एवं चेस्ट रोग विभाग विभागाध्यक्ष डॉ. आरजी नौटियाल कहते हैं कि विभाग में हर महीने विभाग में 80 नए मरीज आ रहे रिपोर्ट हो रहे हैं। इसमें 18 से 45 आयु वर्ग के अधिक होते हैं। इनमें महिलाओं की संख्या तुलनात्मक तौर पर अधिक होती है। डॉ. नौटियाल कहते हैं कि अगर माता-पिता में किसी एक को अस्थमा की दिक्कत है तो बच्चे में होने की आशंका रहती है। अगर बच्चे में अस्थमा के लक्षण दिखाई दें तो इलाज शुरू करा देना चाहिए। बचपन से ही इलाज हो जाता है तो उसके आगामी जीवन पर बीमारी का कोई फर्क नहीं पड़ता है।

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