हल्द्वानी
चीनी सैनिकों से झड़प के बीच राज्य में पहली बार 17 सालों से आंदोलित एसएसबी के गुरिल्लों के सत्यापन का आदेश शासन स्तर से जारी हुआ है। प्रदेश भर में कुल 19 हजार छह सौ गुरिल्ला हैं। जबकि नैनीताल जिले में कुल संख्या 1100 है। सत्यापन के दौरान गुरिल्लों के दावे, जीवित-मृत होने के प्रमाण समेत अन्य जानकारियां जुटाई जाएंगी।
युवक-युवतियों को दी जाती थी 45 दिन की कठिन ट्रेनिंग
सत्यापन प्रक्रिया पूरी होने के बाद सरकार मणिपुर राज्य की तरह गुरिल्लों को सरकारी सेवाओं में वरीयता देने के साथ, पेंशन समेत अन्य सुविधाओं पर विचार कर सकती है।
भारत–चीन युद्ध के बाद दिया गया था प्रशिक्षण
1962 में चीन युद्ध के दौरान आई कमजोरियों से सबक लेते हुए युद्ध समाप्त होने के बाद 1963 में अस्तित्व में आए सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) का काम प्राथमिक कार्य रॉ के लिए सशस्त्र सहायता प्रदान करना था।
यह बल गांव के लोगों को हथियार चलाने की ट्रेनिंग देता था। इस बेसिक कोर्स से चुने गए युवक-युवतियों को 45 दिन की कठिन गुरिल्ला ट्रेनिंग दी जाती थी। हर बार के प्रशिक्षण में गुरिल्लों को प्रशिक्षण अवधि का एक निश्चित मानदेय दिया जाता था।
2001 में समाप्त कर दी गई भूमिका
छापामारी युद्ध के लिए हिमाचल के सराहन और उत्तराखंड के ग्वालदम में प्रशिक्षण केंद्र बनाया गया। युवतियों को उत्तराखंड के पौड़ी में प्रशिक्षण दिया जाता था। इसके बाद इन्हें एक निश्चित मानदेय पर एसएसबी के हमराही वालंटियर के रूप में तैनाती दी जाती थी।
वर्ष 2001 में केंद्र सरकार ने एसएसबी को सशस्त्र बल में शामिल कर सशस्त्र सीमा बल नाम दे दिया और गुरिल्लों की भूमिका समाप्त कर दी। तभी से राज्य में गुरिल्ला आंदोलनरत हैं।
हाई कोर्ट पहुंचा था मामला
गुरिल्लों के आंदोलन का मामला इसी साल अगस्त माह नैनीताल हाई कोर्ट भी पहुंचा था। टिहरी गढ़वाल निवासी अनुसुइया देवी व नौ अन्य और पिथौरागढ़ के मोहन सिंह व 29 अन्य गुरिल्लों व उनकी विधवाओं की याचिका पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने सरकार को गुरिल्ला व मृतक गुरिल्ला के आश्रितों को मणिपुर राज्य की तरह नौकरी व सेवानिवृत्ति के लाभ तीन माह के भीतर देने के आदेश दिए थे।
दून से दिल्ली तक कर चुके हैं आंदोलन
उत्तराखंड में गुरिल्ले लंबे समय से संघर्षरत हैं। पिथौरागढ़ जिले के गंगोलीहाट में गुरिल्लों ने 2004 में संगठन बनाकर सेवायोजित करने और पेंशन देने की मांग को लेकर आंदोलन शुरू किया। अल्मोड़ा में करीब 13 साल से धरना दे रहे हैं। देहरादून से लेकर दिल्ली के जंतर मंतर तक गुरिल्लों ने आंदोलन किया लेकिन किसी भी सरकार ने उनकी मांग पूरी नहीं की।
क्या होता है गुरिल्ला युद्ध
गुरिल्ला युद्ध को आम भाषा में छापामार युद्ध कहा जाता है। छापामार सैनिक शत्रु सेना पर अचानक आक्रमण करते हैं और गायब हो जाते हैं। गुरिल्ला अपने पास बहुत कम सामान रखते हैं, जिससे हमला कर तेजी से उस स्थान से निकलने में मदद मिलती है। युद्ध का उद्देश्य दुश्मन सेना पर मानसिक दबाव बनाना, उन्हें मिलने वाली रसद, गोला बारूद व मेडिकल सहायता को रोकना होता है।
शासन स्तर से राज्य के गुरिल्लों के सत्यापन का आदेश जारी हुआ है। प्रशासन सत्यापन अभियान चला रहा है। गुरिल्लों को चिह्नित कर सरकार उनके हित में यथोचित फैसले ले सकती है।
– अशोक कुमार, डीजीपी
उत्तराखंड राज्य की सरकारों ने गुरिल्लों व उनके परिवारों का ख्याल नहीं रखा। पिछले 17 वर्षों से हमने लगातार सरकारों को कई ज्ञापन सौंपे, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। प्रदेश सरकार सत्यापन के बाद कुछ बेहतर योजना पर विचार कर रही है, तो यह हजारों परिवारों के लिए राहत की खबर है।
– ब्रह्मानंद डालाकोटी, केंद्रीय अध्यक्ष एसएसबी स्वयंसेवक संघ कल्याण समिति