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झारखंड की स्पेशल ब्रांच ने पिछले साल एक लेटर जारी किया. इसमें घुसपैठियों के संथाल-परगना आकर मदरसों में ठहरने की बात लिखी है. कथित तौर पर इसी दौरान उनके पहचान पत्र बनते हैं. ब्रांच ने संथाल में इसकी जांच की बात की थी. दिसंबर में एक लेटर होम मिनिस्ट्री से आया, जिसमें उन फर्जी पोर्टल्स का जिक्र है, जो नकली ID बना रहे हैं. हम खुद सड़क और नदी से होकर बॉर्डर तक सच्चाई जानने पहुंचे.

पिछले दो हिस्सों में आप पढ़ चुके हैं कि कैसे सरहद से सटे इलाकों में घुसपैठ, लव जिहाद, लैंड जिहाद के मुद्दे जोर पकड़ रहे हैं. संथाल-परगना के तीन जिलों में इसे लेकर हमारी पड़ताल के तीसरे हिस्से में पढ़िए कि बॉर्डर पर सख्त निगरानी के बावजूद बांग्लादेश से भारत में आ बसना कुछ लोगों के लिए उतना ही आसान है, जितना एक से दूसरे शहर जाना…

बीते कुछ समय से झारखंड के आदिवासी इलाकों की डेमोग्राफी में बदलाव की बात सुनाई दे रही है. पाकुड़ में मुस्लिम आबादी में करीब 40 प्रतिशत की बढ़त हुई, वहीं संथाल आबादी 20 प्रतिशत से भी कम बढ़ी. साहिबगंज को देखें, तो संथालों के 11 प्रतिशत की तुलना में मुस्लिम आबादी में 37 प्रतिशत की बढ़त हुई. साल 2001 और 2011 की जनगणना की तुलना करने पर ये बात दिखती है.

इसकी वजह बांग्लादेशी घुसपैठ मानी जा रही है. कहा जाता है कि पश्चिम बंगाल का एक खास रूट लेते हुए बाहरी मुस्लिम झारखंड के बॉर्डर तक पहुंचते हैं. वहां कुछ दिन मदरसों में गुजारते हैं. इसके बाद आम लोगों के बीच घुलमिल जाते हैं.

मिनिस्ट्री से जारी कुछ कागज भी इन आरोपों को वजन देते हैं. 

मिनिस्ट्री ऑफ होम अफेयर्स ने बीते साल दिसंबर में एक दस्तावेज जारी किया. इसमें 120 से ज्यादा नकली वेबसाइट्स का जिक्र है, जो नकली बर्थ सर्टिफिकेट बना रही हैं. इनके URL में असल से हल्का-सा ही फर्क होता है. हम उस अस्पताल तक भी पहुंचे, जिसने खुद धोखाधड़ी की रिपोर्ट दर्ज करवाई थी.

इसके तार जुड़ते हैं बीते साल जारी एक और लेटर से, जो झारखंड की स्पेशल ब्रांच ने जारी किया था. पत्र का सब्जेक्ट है- झारखंड में बांग्लादेशी घुसपैठियों के प्रवेश के संबंध में.

ब्रांच ने एक साथ कई विभागों को ये लेटर भेजा था. इसके मुताबिक, घुसपैठिए बॉर्डर इलाके के मदरसों को बेस कैंप की तरह इस्तेमाल करते हैं, और वहीं रहते हुए दस्तावेज बनाने से लेकर आगे की योजना बनती है.

रिएलिटी चेक की कोशिश में हमने दुमका, साहिबगंज समेत पाकुड़ का दौरा किया.

संथाल परगना में आने वाले ये इलाके सीधे-सीधे बांग्लादेश को नहीं छूते, लेकिन पश्चिम बंगाल के बॉर्डर से ऐसे सटे हुए हैं, जहां से उसकी सीमा तक पहुंचना खास मुश्किल नहीं.

हम खुद पाकुड़ से मुर्शिदाबाद और मालदा होते हुए पानी के रास्ते सीमा के आखिरी गांव सोभापुर पहुंचे, जहां दोनों देशों की फेंसिंग लगती है.

दिल्ली से दुमका होते हुए सड़क के रास्ते हम निकले.

पहला पड़ाव साहिबगंज का उधवा ब्लॉक था. यहां उधवा वाइल्डलाइफ सेंचुरी के पास ही उधवा नाला है. करीब 25 किलोमीटर लंबा ये नाला गंगा नदी से जुड़ता है. जानकारी मिली थी कि इस रूट से अवैध व्यापार और आवाजाही दोनों ही मुमकिन है. किसी समय आदिवासियों का इलाका उधवा अब मुस्लिम-बहुल हो चुका है. इसमें भी नदी से सटे एरिया (स्थानीय भाषा में इसे दियारा कहते हैं) की आबादी में चौंकाने वाली बढ़त है.

उधवा के रास्ते में ही बदलती डेमोग्राफी का चेहरा भी दिख जाता है. हाईवे पर पेट्रोल पंप से लेकर खाने-पीने के ठियों पर भी मुस्लिम-छाप. एक मुस्लिम होटल है. हम नाश्ते-पानी के लिए वहां उतरे. देग में बिरयानी पक रही थी. .

वहां के मालिक ने कुछ झिझकते हुए कहा- ये मुसलमानों के लिए ही है.

क्यों?

हम बड़े का गोश्त पकाते हैं. (बांग्ला-घुली हिंदी)

बड़ा मतलब गोरू?

हां.

कहां से मिलता है ये गोश्त?

हर जगह सप्लाई है. रुककर, कुछ सोचते हुए…कहा न, ये मुस्लिम होटल है. हमने लिख भी रखा है. इस बार आवाज में हिचकिचाहट से ज्यादा झुंझलाहट.

आगे बढ़ने पर सड़क किनारे कच्चे-पक्के मकान बने हुए. औरतें घरों के सामने बैठी हुई हैं. पहली नजर में सबपर मुस्लिम-छाप. छोटी बच्चियों के सिर भी ढंके हुए. गले में पड़े दुपट्टे को सावधानी से सिर पर लपेटकर मैं एक परिवार से मिलती हूं. तीन महिलाएं और 10 से 12 बच्चे. खाट पर सबसे बड़ी लड़की कुछ पढ़ रही है. हिंदी की किताब.

आसपास सारी बातचीत बांग्ला में हो रही है. कोलकाता की भाषा से ये जबान कुछ अलग सुनाई पड़ी. जैसे नहाने जाते हुए एक बच्चा गोशोल (गुस्ल) शब्द इस्तेमाल करता है, जो कि अरबी शब्द है. खैर! दुआ-सलाम के बाद खाट पर बैठी सबसे बुजुर्ग महिला से बातचीत शुरू हुई.

मैं सर्वे के लिए आई हूं. चुनाव आने वाला है. हम कागज-वगैरह बनाने में मदद कर रहे हैं.

अच्छा-अच्छा.

कब से यहां रह रहे हैं आप लोग?

15 साल से. बूढ़ी महिला जवाब देती हैं.

इससे पहले कहां रहते थे?

चुप्पी..

बांग्लादेश गए हैं कभी?

हैं…वहां तो घर-जमीन है.

अच्छा. अरे, वाह. फिर तो आना-जाना होता रहता होगा!

अब बात का सिरा युवा लड़की संभाल लेती है. ‘नहीं. हमारा सब यहीं है. कालियाचक रहते थे पहले. काम के लिए यहां आए.’

आपके पास कोई पर्चा या पहचान-पत्र है, वो दिखाइए…लड़की सवाल छोड़कर मुझसे दरयाफ्त करने लगती है.

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बात बीच में ही छोड़कर हम आगे बढ़ जाते हैं, जहां असलम नाम का शख्स हमारा इंतजार कर रहा है.

‘यहां बात नहीं करेंगे. उधवा नाले की तरफ चलिए. लाइव भी देख लीजिएगा.’ वो हंसते हुए कहता है. बाइक वहीं छोड़कर हमारे साथ कार में चलने की बात पर वो मना कर देता है.

नहीं, यहां मेरे आदमी रहते हैं. उनकी नजर में पड़ जाएगा.

असलम की जान-पहचान की झलक रास्तेभर दिखती है. कई लोग सिर हिला रहे हैं. कई बार बाइक रोकी गई. जाते हुए लोग शीशे से हमें झांकते चलते हैं. आधे घंटे की ड्राइव के बाद हम मंजिल पर हैं.

I Love Udhwa तख्ती के आसपास कई सारे मुस्लिम परिवार घूमते हुए. तस्वीर लेने से रोकते हुए असलम एक बेंच पर बैठ जाते हैं. इस शख्स के सामने हम बिजनेस प्रपोजल लेकर आए हैं. सारी बिसात बिछाकर बातचीत शुरू होती है.

हम ढाका में बिजनेस करना चाहते हैं. आपकी काफी पहचान है. थोड़ी हेल्प कीजिए.

-हां-हां, जो हमसे बनेगा कर देंगे. बायर (खरीदार) कहां मिलेगा, कैसे उसे कॉन्टैक्ट करना है, हम आपको गाइड करेंगे. वैसे प्रोडक्ट क्या सलेक्ट की हैं आप?

-तीन-चार चीजें हैं माइंड में. लेकिन एक दिक्कत है. बजट कम है हमारा. ठगी तो नहीं हो जाएगी!

– अरे नहीं. बायर ठीक मिल गया तो कोई दिक्कत नहीं होगी. हम खोज देंगे.

– कोई आसान तरीका है क्या कि पैसे कम से कम खर्च हों?

– प्रयास किया जाएगा. आप तैयार हो जाइए पहले.

– बिजनेस से पहले एक बार ढाका जाना चाहते हैं हम, रेकी के लिए.

– वीजा लगाकर चली जाइए.

– नहीं, वैसे नहीं. इसमें तो पैसे खर्च होंगे.

– अच्छा. नजर में नहीं आना चाहते तो किसी के थ्रू करवाना होगा काम. लड़का सलेक्ट करना होगा.

– आप करवा दीजिए असलम भाई.

– हम कहां… हंसते हुए…अच्छा चलिए, वैसा सिचुएशन आएगा तो आपको कोऑपरेट करेंगे. लेकिन प्रोडक्ट क्या सोचा है आपने?

थोड़ी देर में उसे समझ आ जाता है कि बिजनेस से हमारा कोई वास्ता नहीं.

फिर आप लोग क्यों आए हैं?

क्यूरियोसिटी में. बांग्लादेशियों की बात सुनते रहते हैं तो ऐसे ही देखने चले आए.

अच्छा. एडवेंचर के लिए. असलम कन्विंस्ड लगते हैं, लेकिन मोबाइल बंद करने कह देते हैं.

-ये बताइए कि आप वहां से यहां कैसे आए?

– आप दिल्ली से हैं न. वहां भी कितना बांग्लादेशी रह रहा है. आदमी कमाने के लिए कहां से कहां चला जाता है- गोलमाल जवाब आता है.

– लेकिन पहचान पत्र तो चाहिए. वो कैसे आता है?

– बांग्लादेशी लोग यहां ओरिजिनल आईडी के साथ रह रहे हैं. सबके पास सब है. आजादी से पहले का मिल जाएगा. उससे पहले का कहें तो वो भी आ जाएगा. कागज सब मिलेगा.

– आप अपना बताइए?

हम तो यहीं के हैं. हमारा छोड़िए न. अभी एक केस आया था प्राणपुर का. जांच के बाद वो पकड़ा गया. लेकिन अब आना कम हो गया है. पहले सब आता था.

– कैसे आ जाते हैं, बॉर्डर पर कोई रोकता नहीं?

– इतना लंबा-चौड़ा तो बॉर्डर है. हर जगह सिक्योरिटी नहीं न है… नदी के फांक से आ जाते हैं. आदमी आता है, गोरू आता है, झाड़ू आता-जाता है. सब हो जाता है.

– हम भी बॉर्डर पार करना चाहते हैं. क्या करें?

– आप बताइए न, कहां जाना है. हम व्यवस्था करवा देंगे.

अगली सुबह हम पाकुड़ से होते हुए धुलियान पहुंचे.

मुर्शिदाबाद के इस शहर में लगभग 80 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है. शहर गंगा नदी के किनारे बसा हुआ, जो बांग्लादेश जाकर पद्मा नदी बन जाती है. लंबे समय तक नदी वॉटर ट्रांसपोर्ट का जरिया रही. यहां से लोग और सामान दोनों ही पानी के रास्ते आर-पार होते रहे. या यूं कहिए कि घुसपैठ और तस्करी होती रही. सबकुछ अब भी जारी है, लेकिन परदे की ओट में.

कैसे, ये समझने के लिए हम धुलियान घाट पहुंचकर टिकट कटा, नाव में चढ़ जाते हैं.

डीजल से चलने वाली नाव पर बचने-बचाने का कोई इंतजाम नहीं. न ही इसकी कोई जरूरत दिखती है.

ठसाठस होने के बाद भी लोग चढ़ते हुए. बाइक, साइकिल, सिले मुंह वाले बोरे के बोरे, और लोग. जब पक्का हो गया कि अब नाव में सुई भी एक्स्ट्रा नहीं आएगी, इसके बाद ही इंजन चालू हुआ.

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करीब 15 मिनट बाद हम घाट के उस पार पहुंचे. ये मालदा जिला है. सामने ही टोटो (ई-रिक्शा) खड़े हुए.

कहां जाना है?

बॉर्डर देखने. मुंह के साथ-साथ हमने आंखें भी ढांपी हुई हैं. लहजे में टूरिस्ट वाला भाव.

ठीक है. 75 टका लगेगा. बैठो.

हमारे साथ एक मुस्लिम कपल भी बैठता है. सिर ढांपी हुई महिला के साथ सिर ढांपी हुई बच्ची. आधे घंटे के सफर के दौरान उनमें से कोई एक शब्द नहीं कहता.

रास्तेभर खेत ही खेत. मालदा का ये हिस्सा कालियाचक में आता है, जो किसी समय अफीम की अवैध खेती के लिए खासा बदनाम रहा. देशविरोधी गतिविधियों और तस्करी के लिए भी कालियाचक खुफिया एजेंसियों के रडार पर रहता आया.

टोटो जिस जगह रुकता है, वो देश का आखिरी सिरा है. सोवापुर की सीमा चौकी. बांग्लादेश यहां से कुछ ही कदम दूर है.

 

फेंसिंग के उस पार बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स के जवान मुस्तैद हैं. .

एक से बात करने की कोशिश करती हूं– आपका काम तो बहुत मुश्किल है. घंटों खड़े रहना पड़ता है.

हां. लेकिन करना  है तो करना है.

फेंसिंग से भी लोग आर-पार हो जाते हैं, ऐसा सुनते हैं हम लोग.

इतना बड़ा बॉर्डर है. कहीं न कहीं कुछ हो जाता होगा.अब यहां से जाइए. सड़क के उस पार चले जाइए. ये रेस्ट्रिक्टेड एरिया है.

सड़क के उस पार की दुनिया में बांग्लादेश रुटीन में आने वाले शब्द है. हर परिवार में कई-कई सदस्य पड़ोसी देश से आए हैं. एक महिला ने खुलकर इस बारे में बात की. हमें टूरिस्ट मानते हुए.

अफसाना नाम की महिला की बातों को हम जस का तस यहां रख रहे हैं.

मेरी मम्मी बांग्लादेश की हैं. मेरे ही घर में 20 आदमी यहां आए शादी करके. वहां की लड़कियां, शादी करके इस पार आने को तैयार रहती हैं.

और उधर के आदमी, वे नहीं आते क्या यहां?

वो भी आते हैं. लड़की आएगी तो परिवार भी आएगा ही.

आपकी मम्मी का भी जाना-आना लगा रहता होगा!

हां. पहले तो बाड़ नहीं लगी थी तो रोज का आना-जाना था. 16 साल पहले ये बाड़ लग गई. अब वीजा भी करना पड़ जाता है. कई बार बाड़ काट भी देते हैं. हमारे गांव का ही एक भाई छेनी, चाकू लेकर काट दिया था. दूसरे दिन बीएसएफ ने पूछा कि क्या हुआ, कौन किया. हम लोग चुप रहे. बोले कि रात में कोई कर गया, हम नहीं जानते. बता देते तो बाड़ की तरह हम भी कट जाते.

अफसाना फटाफट सारी बातें बता रही है. वो भी हिंदी में.

हिंदी कहां सीखी आपने इतनी बढ़िया, यहां तो सब बांग्ला बोलते हैं.

पिक्चर देख-देखकर. गांव में किसी को मेरे जैसी हिंदी नहीं आती. वो तो बांग्ला ही समझते हैं. कोई बाहरी आए तो मैं बात करती हूं.

अच्छा, आप कह रही थीं कि बाड़ काट दिए. ऐसा तो अक्सर होता होगा.

हां. और बहुत जगह बाड़ है भी नहीं. वहां से सब पार हो जाते हैं.

क्या-क्या आता-जाता है इधर से उधर?

पोशाक, मीट, स्वेटर, मसाला- सब…सबका लेनदेन चलता है.

सबसे ज्यादा क्या जाता है यहां से?

गोरू का मीट. यहां जितना दाम है, बांग्लादेश में उसका 7 सौ रुपये ज्यादा मिलता है मीट का.

अच्छा, ये बताइए, गांव में हिंदू भी हैं क्या?

हिंदू हैं न.

हां. हम कुछ बोलेंगे तो वो कुछ बोलेंगे. हम कुछ नहीं बोलते. तुम अपना रहो, हम अपना रहेंगे. हम जलसा करते हैं. वो कीर्तन करते हैं. आज भी कीर्तन चल रहा है उनका.

पास से कहीं हरे-रामा, हरे-कृष्णा का भजन सुनाई दे रहा था. हम वहां जाने को थे, लेकिन तभी लड़कों का एक झुंड हमारे पास आ गया. वे पूछताछ करने लगे. बात आगे निकले, उससे पहले हम टोटो लेकर घाट पार चले आए.

ग्राउंड को टटोलने के बाद हमने अधिकारियों और नेताओं से भी बात की लेकिन सबसे पहले जानिए, उस चिट्ठी के बारे में, जो मिनिस्ट्री ऑफ होम अफेयर्स ने 13 दिसंबर को जारी की थी.

सारे राज्यों और यूनियन टैरिटरी को संबोधित करते हुए इस लेटर में बताया कि अब तक 120 से ज्यादा फेक पोर्टल और वेबसाइट्स पहचानी गई हैं, जो नकली बर्थ और डेथ सर्टिफिकेट बना रही हैं.

इन नकली वेबसाइट्स का URL सरकारी वेबसाइट से मिलता-जुलता है ताकि पहली नजर में किसी को शक न हो. सबकुछ बहुत प्लान्ड तरीके से.

झारखंड में भी ऐसे मामले सामने आए, जहां बांग्लादेश से आए लोगों ने नकली बर्थ सर्टिफिकेट बनवाकर बाकी पहचान-पत्र बनवा लिए.

मिसाल के तौर पर पाकुड़ की बात करें तो वहां के जिला सदर अस्पताल के डॉक्टरों ने खुद केस दर्ज करवाया कि उनके नाम पर फेक लोगों को बर्थ सर्टिफिकेट दिया जा रहा है. यहां तक कि डिजिटल साइन भी चोरी हो चुके हैं.

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अस्पताल के ही एक स्टाफ ने नाम, चेहरा न दिखाने की शर्त पर कई बातें बताईं.

झारखंड में बंगाल के रास्ते आने वाले बांग्लादेशी नकली बर्थ सर्टिफिकेट बनवाते हैं. आने के तुरंत बाद वे मदरसों में ठहरते हैं. इस दौरान उनका नाम, पता सबकुछ तैयार किया जाता है. यहां तक कि लोगों को उस जगह की रेकी भी करवाई जाती है. हैंडलर तब तक उनके कागज तैयार कर देते हैं.

आप लोगों को कैसे पता लगा कि आपके अस्पताल का गलत इस्तेमाल हो रहा है.

संयोग से ही पता लगा. फिर तो कई केस पकड़ में आए. हमारी वेबसाइट के URL में एकदम हल्का सा हेरफेर कर दिया गया है कि शक न हो. ऐसे में नजर जाने का सवाल ही नहीं आता.

पुलिस ने कोई कार्रवाई की?

इस बारे में हमें कोई जानकारी नहीं. हमारा काम था उन्हें बताना. वो कर दिया.

मका में हमारी मुलाकात जिला सांख्यिकी अधिकारी पुष्पेंद्र कुमार सिन्हा से हुई, जो होम से जारी खत का हवाला देते हुए मानते हैं कि लोग साइट को हैक कर रहे हैं.

वे कहते हैं- पहले जन्म-मौत का रजिस्ट्रेशन मैनुअल था. तब गलत लोगों का रजिस्ट्रेशन आसान था. लेकिन फिर यूनिफॉर्म सिविल रजिस्ट्रेशन होने लगा. हमने माना कि अब फेक सर्टिफिकेट की घटनाएं नहीं होंगी. लेकिन पिछले कुछ समय में हमारे ही सामने ऐसे 100 से ज्यादा मामले आ चुके, जहां एक खास कम्युनिटी के लोगों ने फर्जी कागज बना डाले. बॉर्डर एरिया के इलाके जैसे उधवा, बरहड़वा, पाकुड़ के मामले हैं ये.

हमने अपनी तरफ से काफी पड़ताल की लेकिन कुछ पता नहीं लगा, सिवाय इसके कि फेक बर्थ सर्टिफिकेट बनवाने वाले सभी लोग एक ही समुदाय से थे. वे कहां से आए और ऐसा क्यों कर रहे थे, ये तो हम नहीं कह सकते, लेकिन इतना तय है कि इरादा कुछ बढ़िया था नहीं.

अब पढ़िए, क्या कहते है आरोप लगाने वाले, और राज्य में सत्ता में बैठे लीडर.

राजमहल विधायक अनंत ओझा, जो कि भाजपा से हैं, बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा अक्सर उठाते रहे.

वे कहते हैं- आज से नहीं, 90 के दशक से घुसपैठ जारी है. साल 1992 में तत्कालीन डीसी सुभाष शर्मा ने राज्य में 17 हजार से ज्यादा फेक वोटर आईडी की पहचान की थी. उन्हें निरस्त तो कर दिया गया, लेकिन उन नामों के पीछे छिपे चेहरे कहां गए, ये किसी को नहीं पता. डिपोर्टेशन जैसी कोई कार्रवाई नहीं हुई.

अब भी ये चल रहा है. पश्चिम बंगाल का कालियाचक इन लोगों का गढ़ है. आप देखिए, कि साहिबगंज से मोबाइल चोरी होगा और 48 घंटों के भीतर उसकी लोकेशन बांग्लादेश बताने लगेगी. देशभर में सोना चोरी के लिंक कालियाचक से जुड़े हुए हैं. यहां से सोना बांग्लादेश पहुंच जाएगा.

एक पूरा रैकेट ये काम कर रहा है. वो घुसपैठियों को राशन कार्ड, वोटर कार्ड दिलवाता है. जल्द ही वे स्थानीय चुनावों में सीधे या किसी ओट में लड़ने लगते हैं. और फिर लोकल बॉडी पर भी उनका कब्जा हो जाता है.

लेकिन इसका कोई प्रमाण है आपके पास?

आप देखिए न, मतदाता सूची की राष्ट्रीय औसत दर क्या है, और साहिबगंज, पाकुड़ या सीमावर्ती इलाकों की दर क्या है. दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है. एकाएक इतने वोटर यहां कहां से आ रहे हैं. पूरा का पूरा इंटरनेशनल नेटवर्क है, जो सुनियोजित तरीके से देश में संकट पैदा कर रहा है.

झारखंड के मंत्री और पूर्व सीएम हेमंत सोरेन के भाई बसंत सोरेन से भी इस मामले में हमारी बात हुई.

फोन पर हुई बातचीत में वे घुसपैठ से सीधे नकारते हैं. वे नाम लेते हुए कहते हैं- बांग्लादेशी घुसपैठ की बात बीजेपी के फलां-फलां नेता ही करते हैं. लेकिन इनसे पूछिए, इनके पास कोई प्रूफ या इंफॉर्मेशन है! उनकी किसी बात में सच्चाई नहीं है.

लेकिन संथाल परगना की डेमोग्राफी का बदलना तो कागजों पर दिख रहा है, इस बारे में आप क्या सोचते हैं?

उनका जवाब था- संथाल परगना की बात मैं नहीं कहता, लेकिन दुमका में ऐसा कुछ नहीं हो रहा है. वैसे हम बांग्लादेश के बॉर्डर एरिया के पास रहते हैं तो कुछ न कुछ अलग तो रहेगा.

इन तमाम इलाकों में मतदाता सूची में अलार्मिंग बढ़त दिख रही है, ऐसा क्यों? इस पर सोरेन का जवाब था- काफी लोग एडल्ट हुए होंगे, वही सूची में दिख रहा होगा.

स्टोरी पर हमने पाकुड़ से विधायक आलमगीर आलम से भी बात करने की कोशिश की, लेकिन उनसे संपर्क नहीं हो सका. वहीं साहिबगंज के डीसी हेमंत सती ने ये कहते हुए बात खत्म कर दी कि वे कुछ दिन पहले ही यहां आए हैं, और उन्हें इसकी कोई जानकारी नहीं.