शिक्षित समाज ही गांव, शहर, राज्य और देश के भविष्य को सुनहरा बनाते हैं और इसकी नींव स्कूल में रखी जाती है। एक जमाने में जिन सरकारी स्कूलों से पढ़कर निकले हुए बच्चे आईएएस, पीसीएस से लेकर डॉक्टर तक बने आज वही स्कूल अपनी बदहाली पर रो रहे हैं।
उत्तराखंड गठन से पहले उत्तर प्रदेश के जमाने में बेशक नए स्कूल न खुले हों, लेकिन स्कूल बंद भी नहीं हुए। इसके उलट राज्य बनने के 23 साल बाद की तस्वीर सरकारी शिक्षा के हिसाब से बेहतर नहीं कही जाएगी। कुमाऊं में जो 511 सरकारी स्कूल बंद हुए हैं उसकी वजह छात्र संख्या शून्य होना या इन विद्यालयों में 10 से कम छात्रों का होना। सवाल ये है कि हम इन स्कूल में विद्यार्थियों की संख्या क्यों नहीं बढ़ा पाए। शिक्षा विभाग के आंकड़ों से स्पष्ट है कि सिर्फ और सिर्फ संसाधनों का अभाव ही सरकारी शिक्षा के स्तर को नीचे ले गया है। स्कूलों में न शिक्षक हैं न प्रधानाध्यापक-प्रधानाचार्य और ना ही ढंग के स्कूल भवन। कई जगह तो जर्जर स्कूलों में बच्चे जान जोखिम में डालकर अपना भविष्य गढ़ने के लिए मजबूर हैं।
शिक्षा विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, प्राथमिक, जूनियर हाईस्कूल, हाईस्कूल और इंटर कॉलेज में शिक्षकों के 4685 तो प्रधानाध्यापकों व प्रधानाचार्यों के 744 पद रिक्त हैं। उच्च शिक्षा का भी यही हाल है। जगह-जगह नए महाविद्यालय तो खोल दिए गए, लेकिन उनमें सभी विषय नहीं हैं। जहां विषय हैं भी तो वहां प्राध्यापकों का अभाव है। कई महाविद्यालय तो किराये के भवनों में चल रहे हैं। कुछ महाविद्यालय ऐसे भी हैं जिनके अपने भवन बन चुके हैं, लेकिन सड़क के अभाव में वे वहां शिफ्ट नहीं हो पा रहे हैं।